शुक्रवार, 15 मई 2015

*** रे मानव ***

*** रे मानव ***
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रे मानव !
क्यूँ अंगारों से खेल रहा
अणु- परमाणु के चक्रव्यूह में -
जीवन अपना ठेल रहा ,
क्रंदन -खण्डन के गीतों में -
होती वंदन महक कहाँ ?
अस्त्र -शस्त्र की कोप- गाह में -
परमानन्दी चहक कहाँ ?
है अभिलाषा कुत्सित तेरी -
तू स्वार्थ बोध में अटक रहा ,
विनाश शिखर पर बैठा-बैठा -
हाथ पैर को पटक रहा ,
भूल गया तू यहाँ सभी को -
ये सब तेरे हैं अपने ,
जहाँ भी शस्त्र चलेगा तेरा -
टूटेंगे अपनों के सपने ।

टूट गए यदि रिश्ते सारे -
होगा तू भी चकनाचूर यहाँ ,
चाहता है जो बना रहे -
अस्तित्व तेरा इस जहाँ ,
अस्त्र -शस्त्र की होड़ छोड़ -
प्रणय का पैगाम फैला ,
प्रचंड- प्रलय की ज्वाला से -
मधुर- सुगन्धि पवन चला ,
अहिंसावादी ब्रह्मास्त्र से-
कर दे छिन्न पापों का मस्तक ,
निश्छल भाव जगत में धर दे -
प्रणयी रश्मि की दस्तक ।
व्यर्थ अर्थ जो कर रहा तू -
शस्त्रों की निर्माण शक्ल में-
मन तेरा फंसा हुआ है -
भाव शून्य मकड़ जाल में ,
बन्धनमुक्त कर झंकृत कर दे -
व्यापकता की मधुर तान से ,
''वसुधैव कुटुम्ब ''हो नारा तेरा -
मैं भी तेरे साथ चलूँ ,
तेरे नव- उद्घोष की खातिर -
जन-मन में उद्गार भरूं ,
त्याग विनाश की प्रकृति को -
सृजन को तू गले लगा ,
धता बता दे भेदभाव को -
नई सोच, नई उमंग जगा ।
----------सुरेशपाल वर्मा ''जसाला '' [दिल्ली ]

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