शुक्रवार, 22 मई 2015
गुरुवार, 21 मई 2015
***हमने उसमें नाज़ सा देखा***
हमने उसमें नाज़ सा देखा;
दम्भीपन का राज सा देखा ।
चुनरी उड़ती देख रंगीली ;
उसको उड़ता बाज़ सा देखा ।

वो बेढंगा बेसलीका है ;
तो भी लिपटा लाज़ सा देखा ।
रहता कोसों दूर बेचारा ;
सम्बन्ध बटन काज सा देखा ।
सीधा -सादा ना अहंकारी ;
पर वो सर का ताज सा देखा ।
गुरबत में भी हार ना मानें ;
नासाजी में साज़ सा देखा ।
पंथ जसाला लेय सुन्हेरा ;
बेमानी पे गाज़ सा देखा ।
****सुरेशपाल वर्मा जसाला [दिल्ली]
सोमवार, 18 मई 2015
गाँव (*गाँव पर एक कुंडली *)
*****गाँव पर एक कुंडली *****
काना-बतिया कर रहे ,,वृक्ष सभी इक साथ ;
क्रन्दित शाखा झुक रही ,,,,पकड़ै मेरे हाथ ।
पकड़ै मेरे हाथ ,,,,,,,,,,,,पात भी राग सुनावै ;
डगर- खेत-खलिहान,,,सभी मस्ती में गावैं ।
पक्षी कलरव होय,,,,, मधुर आनंदित गाना ;
आवे बचपन याद,,,,,,,,उडे जो कौआ काना ।
काना-बतिया कर रहे ,,वृक्ष सभी इक साथ ;
क्रन्दित शाखा झुक रही ,,,,पकड़ै मेरे हाथ ।
पकड़ै मेरे हाथ ,,,,,,,,,,,,पात भी राग सुनावै ;
डगर- खेत-खलिहान,,,सभी मस्ती में गावैं ।
पक्षी कलरव होय,,,,, मधुर आनंदित गाना ;
आवे बचपन याद,,,,,,,,उडे जो कौआ काना ।
शुक्रवार, 15 मई 2015
सुभाषचन्द्र बॉस पर एक मुक्तक

***** सुभाषचन्द्र बॉस पर एक मुक्तक*****
सुभाष चंद्र सा वीर लाडला ,,,,,,,,अंग्रेजी शासन गहने लगा ;
''खून के बदले लो आजादी '',,,, मंत्र ये सभी से कहने लगा ;
ठोक दी कीलें उस चरखी में ,,,,,,जो अंगरेजों की चलती थी ;
वो सिंह-गर्जना कर दी ऐसी,शासक भी कम्पित रहने लगा ।
******सुरेशपाल वर्मा जसाला [शाहदरा-दिल्ली]
*** रे मानव ***
*** रे मानव ***
***************
रे मानव !
क्यूँ अंगारों से खेल रहा
अणु- परमाणु के चक्रव्यूह में -
जीवन अपना ठेल रहा ,
क्रंदन -खण्डन के गीतों में -
होती वंदन महक कहाँ ?
अस्त्र -शस्त्र की कोप- गाह में -
परमानन्दी चहक कहाँ ?
है अभिलाषा कुत्सित तेरी -
तू स्वार्थ बोध में अटक रहा ,
विनाश शिखर पर बैठा-बैठा -
हाथ पैर को पटक रहा ,
भूल गया तू यहाँ सभी को -
ये सब तेरे हैं अपने ,
जहाँ भी शस्त्र चलेगा तेरा -
टूटेंगे अपनों के सपने ।
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रे मानव !
क्यूँ अंगारों से खेल रहा
अणु- परमाणु के चक्रव्यूह में -
जीवन अपना ठेल रहा ,
क्रंदन -खण्डन के गीतों में -
होती वंदन महक कहाँ ?
अस्त्र -शस्त्र की कोप- गाह में -
परमानन्दी चहक कहाँ ?
है अभिलाषा कुत्सित तेरी -
तू स्वार्थ बोध में अटक रहा ,
विनाश शिखर पर बैठा-बैठा -
हाथ पैर को पटक रहा ,
भूल गया तू यहाँ सभी को -
ये सब तेरे हैं अपने ,
जहाँ भी शस्त्र चलेगा तेरा -
टूटेंगे अपनों के सपने ।
टूट गए यदि रिश्ते सारे -
होगा तू भी चकनाचूर यहाँ ,
चाहता है जो बना रहे -
अस्तित्व तेरा इस जहाँ ,
अस्त्र -शस्त्र की होड़ छोड़ -
प्रणय का पैगाम फैला ,
प्रचंड- प्रलय की ज्वाला से -
मधुर- सुगन्धि पवन चला ,
अहिंसावादी ब्रह्मास्त्र से-
कर दे छिन्न पापों का मस्तक ,
निश्छल भाव जगत में धर दे -
प्रणयी रश्मि की दस्तक ।
व्यर्थ अर्थ जो कर रहा तू -
शस्त्रों की निर्माण शक्ल में-
मन तेरा फंसा हुआ है -
भाव शून्य मकड़ जाल में ,
बन्धनमुक्त कर झंकृत कर दे -
व्यापकता की मधुर तान से ,
''वसुधैव कुटुम्ब ''हो नारा तेरा -
मैं भी तेरे साथ चलूँ ,
तेरे नव- उद्घोष की खातिर -
जन-मन में उद्गार भरूं ,
त्याग विनाश की प्रकृति को -
सृजन को तू गले लगा ,
धता बता दे भेदभाव को -
नई सोच, नई उमंग जगा ।
----------सुरेशपाल वर्मा ''जसाला '' [दिल्ली ]
होगा तू भी चकनाचूर यहाँ ,
चाहता है जो बना रहे -
अस्तित्व तेरा इस जहाँ ,
अस्त्र -शस्त्र की होड़ छोड़ -
प्रणय का पैगाम फैला ,
प्रचंड- प्रलय की ज्वाला से -
मधुर- सुगन्धि पवन चला ,
अहिंसावादी ब्रह्मास्त्र से-
कर दे छिन्न पापों का मस्तक ,
निश्छल भाव जगत में धर दे -
प्रणयी रश्मि की दस्तक ।
व्यर्थ अर्थ जो कर रहा तू -
शस्त्रों की निर्माण शक्ल में-
मन तेरा फंसा हुआ है -
भाव शून्य मकड़ जाल में ,
बन्धनमुक्त कर झंकृत कर दे -
व्यापकता की मधुर तान से ,
''वसुधैव कुटुम्ब ''हो नारा तेरा -
मैं भी तेरे साथ चलूँ ,
तेरे नव- उद्घोष की खातिर -
जन-मन में उद्गार भरूं ,
त्याग विनाश की प्रकृति को -
सृजन को तू गले लगा ,
धता बता दे भेदभाव को -
नई सोच, नई उमंग जगा ।
----------सुरेशपाल वर्मा ''जसाला '' [दिल्ली ]
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